Thursday, June 24, 2010

'धागा'



एक धागा कुछ मोतियों को पिरोता है
उनको उनके अक्स में भिगोता है।

लाता है अस्तित्व में उनको
बनता है, सवारता है,
और फिर...
एक धागा कुछ मोतियों को पिरोता है।

जाने क्या चाहता है,
एक खुबसूरत स्वरुप दिखाता है,
मोतियों को समझाता है,
की उनमे क्या है , जानता है।
कुछ पहचानता है।
कुछ पहचान करता है।
तभी तो....

एक धागा मोती को पिरोता है ।
उनको उनके अक्स में भिगोता है।

4 comments:

  1. hn jee..so finally, we have ur new poem (one of the most awaited one)..agn,very well written..clearly telling the fact that every small thing in this world has got its own identity nd its own place..waiting for the next one..:)

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  2. Ek dhaga jo khud chup jaata hai mootiyon se..
    Us dhaage ko kaun jaanta hai, uski khoobsurti ko kaun dekhta hai..

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  3. @Rajat
    acha hai..
    jab koi kisi ko aadhar deta hai toh woh khud gumnami ki chadar odhleta hai.........
    THANKS......

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  4. ur poems tkes very deep mean.ur perception is good.

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