Friday, August 27, 2010

'खुदी'


खुद को खुदा से जानना है।

खुद को खुदा से पहचानना है।

जिस बात की बरसो तलक थी उलझन।

उससे खुद की खुदाई से पहचानना है........

Saturday, August 7, 2010

'विध्वंशक'


विध्वंशक ,
क्यों
हुआ?
ये चला अब,
न जाने किस ओर ये .....

रोको कोई,
अरे! ये चला ।
लुटने संसार किसका ,
रूह में इसके है, है क्या?
जो
इसे रूहों से जोड़े,
दर्द हो जिसमे समाया,
आग उसमे भर चला ।

अरे! ये चला।
आग उसमे छोड़ के ......
अरे! ये चला।

धोखा था शायद ...
कि
वो चला
एक
अंश को छोड़ पीछे,
है
वो चला ............

'मिट्टी की मूरत'


मिट्टी की मूरत बोल उठी,
बनने से पहले फिर मूरत।
जाने ये क्या कुछ काम करेगी ,
बनने से पहले फिर मूरत।

आई है क्या एक धेय बनाकर ,
या धेय बनेगी ये कर।
पहचान बनाकर जायेगी या,
रह जायेगी ये खोकर।
अनजानी राहों को पायेगी या ,
बाट चुनेगी खा कर ठोकर।

मिट्टीकी मूरत बोल उठी,
बनने से पहले फिर मूरत

Wednesday, August 4, 2010

..........

कोई किसी की आवाज सुन ले तो उसका मौसम बदल जाता है।
और एक वो है की उस आवाज का भी मोल लगाता है।
वो बिन सुने भी उसे महसूस कर सकता है।
और एक वो है जो महसूस करके भी अनसुना कर जाता  है।
ये क्या है जो.........
बेपर्दा होते हुए भी एक पर्दे मे सिमट के रह जाता है।

Monday, August 2, 2010

समर्पण


तुमने सोचा,
कभी हम ऐसा कह जाते है मानो
चोटी हमारे हाथो को छू रही है ।
पर वो तो एक चेहरा था उसका,

सच्चाई तो हमसे आँख मिचौली कर रही है

आगे की कहानी कुछ अलग ही कह रही है।
जो अनकहा है, शब्दों से परे है
किसी के समर्पण की कहानी बह रही है।

सच्चाई हमसे आँख मिचौली कर रही है।

जो रुकना नहीं जानती ,
बस चलती जा रही है
किसी किसी के प्यार की प्यास बुझती जा रही है।
बिन कहे, बिन सुने, शब्दों से परे
किसी की समर्पण की कहानी बह रही है।
सच्चाई हमसे आँख मिचौली कर रही है।

कुछ पूछा, हमने कुछ बताया ,
जाने क्या है उसमे........
अनजानी सी लहर रही है।
किसी के समर्पण की कहानी बह रही है।
सच्चाई हमसे आँख मिचौली कर रही है।

वो चोटी अब हमसे दूर......

उस समर्पण के पास निखर रही है।

सच्चाई हमसे आँख मिचौली कर रही है।

Sunday, August 1, 2010

अभिलाषा



आती है ,
भीनी - भीनी खुशबू लाती है।
साह्स देके जिंदगी मे,
हर नए मोड़ सजाती है

ख्वाहिशो के मयान से ,
भावनाओ के बयान से,
उत्कृष्टता के मक़ाम पे पहुचती है ।
ये अभिलाषा है........
सबको आगे बढाती है

पीछे मुड़ते है जो लोग,
उनकी आकांक्षाये छीण हो चुकी है ।
ये अभिलाषा नहीं........
अभिलाषा तो हर मक़ाम पे बस
चढ़ना सिखाती है

मंजिल कोई भी हो....
अभिलाषा उसमे उत्तेजना जगती है।
सही है या गलत केवल...
इतनी पहचान नहीं करा पाती है

ये अभिलाषा है,
इसलिए कभी
करार नहीं पाती है .........