Sunday, December 26, 2010

"है"


जब कभी हार जाते है।
और हिम्मत नहीं हो पाती उठने की।

तब,

जो अनकहा है कुछ अनछुए शब्दों में पूछता है
क्या
यही तेरा निशां है ?

......और रूह मे बस कर कह जाता है।

तेरी सासों का चलना परिणाम है
कि
.........
तेरा
दूर तलक मक़ाम है।

Saturday, December 18, 2010

"क्योकि कोई खो गया है"





एक दिन था......
जब उन बर्तनों की चमक दिखा करती थी ।
अब उनमे एक धूल की मोटी परत जमा करती है ।

कभी उनमे स्वादों के मेला हुआ करते थे ।

आज उनमे कुछ अजीब से मंजर दिखा करते है ।

कुछ दुसरे ही लोग उनमे घर बुना करते है ।

और हम ....

एक बूंद से उनमे मोती सजा दिया करते है ।




Friday, August 27, 2010

'खुदी'


खुद को खुदा से जानना है।

खुद को खुदा से पहचानना है।

जिस बात की बरसो तलक थी उलझन।

उससे खुद की खुदाई से पहचानना है........

Saturday, August 7, 2010

'विध्वंशक'


विध्वंशक ,
क्यों
हुआ?
ये चला अब,
न जाने किस ओर ये .....

रोको कोई,
अरे! ये चला ।
लुटने संसार किसका ,
रूह में इसके है, है क्या?
जो
इसे रूहों से जोड़े,
दर्द हो जिसमे समाया,
आग उसमे भर चला ।

अरे! ये चला।
आग उसमे छोड़ के ......
अरे! ये चला।

धोखा था शायद ...
कि
वो चला
एक
अंश को छोड़ पीछे,
है
वो चला ............

'मिट्टी की मूरत'


मिट्टी की मूरत बोल उठी,
बनने से पहले फिर मूरत।
जाने ये क्या कुछ काम करेगी ,
बनने से पहले फिर मूरत।

आई है क्या एक धेय बनाकर ,
या धेय बनेगी ये कर।
पहचान बनाकर जायेगी या,
रह जायेगी ये खोकर।
अनजानी राहों को पायेगी या ,
बाट चुनेगी खा कर ठोकर।

मिट्टीकी मूरत बोल उठी,
बनने से पहले फिर मूरत

Wednesday, August 4, 2010

..........

कोई किसी की आवाज सुन ले तो उसका मौसम बदल जाता है।
और एक वो है की उस आवाज का भी मोल लगाता है।
वो बिन सुने भी उसे महसूस कर सकता है।
और एक वो है जो महसूस करके भी अनसुना कर जाता  है।
ये क्या है जो.........
बेपर्दा होते हुए भी एक पर्दे मे सिमट के रह जाता है।

Monday, August 2, 2010

समर्पण


तुमने सोचा,
कभी हम ऐसा कह जाते है मानो
चोटी हमारे हाथो को छू रही है ।
पर वो तो एक चेहरा था उसका,

सच्चाई तो हमसे आँख मिचौली कर रही है

आगे की कहानी कुछ अलग ही कह रही है।
जो अनकहा है, शब्दों से परे है
किसी के समर्पण की कहानी बह रही है।

सच्चाई हमसे आँख मिचौली कर रही है।

जो रुकना नहीं जानती ,
बस चलती जा रही है
किसी किसी के प्यार की प्यास बुझती जा रही है।
बिन कहे, बिन सुने, शब्दों से परे
किसी की समर्पण की कहानी बह रही है।
सच्चाई हमसे आँख मिचौली कर रही है।

कुछ पूछा, हमने कुछ बताया ,
जाने क्या है उसमे........
अनजानी सी लहर रही है।
किसी के समर्पण की कहानी बह रही है।
सच्चाई हमसे आँख मिचौली कर रही है।

वो चोटी अब हमसे दूर......

उस समर्पण के पास निखर रही है।

सच्चाई हमसे आँख मिचौली कर रही है।

Sunday, August 1, 2010

अभिलाषा



आती है ,
भीनी - भीनी खुशबू लाती है।
साह्स देके जिंदगी मे,
हर नए मोड़ सजाती है

ख्वाहिशो के मयान से ,
भावनाओ के बयान से,
उत्कृष्टता के मक़ाम पे पहुचती है ।
ये अभिलाषा है........
सबको आगे बढाती है

पीछे मुड़ते है जो लोग,
उनकी आकांक्षाये छीण हो चुकी है ।
ये अभिलाषा नहीं........
अभिलाषा तो हर मक़ाम पे बस
चढ़ना सिखाती है

मंजिल कोई भी हो....
अभिलाषा उसमे उत्तेजना जगती है।
सही है या गलत केवल...
इतनी पहचान नहीं करा पाती है

ये अभिलाषा है,
इसलिए कभी
करार नहीं पाती है .........

Friday, July 30, 2010

परछाईयाँ


ये परछाईयाँ
कभी कभी हमारे साथ रहती है
या यू कहे हर दम हमारे साथ रहती है.........
कहते है हम की ये हमारा साथ छोड़ दे ,
जब दिन का सूरज रात की चादर को ओढ़ ले ।
पर क्या ये नहीं उस वक़्त ये ,
अपने आप को हममे समेट ले
हमे उस काली रात में खुद ही से जोड़ दे ।

Thursday, June 24, 2010

'धागा'



एक धागा कुछ मोतियों को पिरोता है
उनको उनके अक्स में भिगोता है।

लाता है अस्तित्व में उनको
बनता है, सवारता है,
और फिर...
एक धागा कुछ मोतियों को पिरोता है।

जाने क्या चाहता है,
एक खुबसूरत स्वरुप दिखाता है,
मोतियों को समझाता है,
की उनमे क्या है , जानता है।
कुछ पहचानता है।
कुछ पहचान करता है।
तभी तो....

एक धागा मोती को पिरोता है ।
उनको उनके अक्स में भिगोता है।

Wednesday, May 12, 2010

मेरे लिए .........माँ



मेरे लिए
एक ख्वाब का आगाज हो तुम ।
दुनिया जो सरगम गाती है,
उन सब का बंधा हुआ एक साज हो तुम

आँखों को खोला है तुमने ,
मेरे जिस्म मे जान हो तुम ।
देके जो तुम चली गयी हो
वो जीवन वरदान हो तुम

सासों ने जब तुमसे खेला
हमको तब खेल खिलाया था ।
जीवन की राहो मे चलना
तुमने ही तो सिखलाया था ।

आंधी को बद्लेगे कैसे
सुरख हवा के झोखो मे
बड़ी आसानी से हमको
तुमने
ये बतलाया था।

मैं तो थी एक कोमल लतिका
सीची गयी जब तेरे नीर से
तब बनी हू मै एक कृतिका

अभी थोडा ही तो समय हुआ था
जब मैंने ये सब जाना था
आई ही क्यू आगोश मे तेरे
यू छोड़ के जो तूने जाना था ।

देख के अपने अक्स को तुझमे
तब
तो खुद को पहचाना था
अब तू मुझको ये बतलादे
यू छोड़ के क्यू तुझे जाना था ।

अब जब तुने छोड़ दिया है
साया भी क्या साथ चलेगा ?
फिर सोचा साये का क्या है
तू
तो हम साया बन रूह बसेगा

Friday, April 23, 2010

'जो शाशवत है'


मै जानती हूँ ।
वो हमेशा मेरे साथ है ।
परछाईयाँ जब साथ छोड़े
उस समय मेरे साथ है ।

अज्ञात है जो ,
उसके पीछे हम है चलते ।
जो दिखे,
धोखा कहता ।
जो नहीं ,
विश्वास उस पर क्यू है करता ?

चक्र है वो रोशनी का ।
फैले जहा , विश्वास भरता ।
हो अँधेरा जब दिलो मे ,
एक किरण आरब्ध है वो
छोड़ तिमिरो के वो साये ,
एक नया प्रकाश है वो ।

कौन जानता है उसे 'यहाँ'
फिर भी रुहों से जुडा है।
'साथ खुद का जब हम छोड़े
देख पीछे वो खड़ा है '

Saturday, April 17, 2010

व्योम.


व्योम।
शून्य।
कुछ नहीं होता ।
पर कुछ साकार करता है

जो अनकहा है।
झंझोड़ देता है
जो शांत अचल गंभीर है
स्थिर है शून्य मे अब तक

परदे के पीछे से परदे हटते जा रहे है
उनके कुछ लिखे कुछ अनलिखे शब्दों मे,
व्योम है।

कुछ पता नहीं चलता
क्या कहानी है उसमे छुपी।
वक़्त के हर क्षण की
रवानी है उसमे रुकी,

ठहर गया है सब कुछ
वक़्त को भींचे हुए ,
पर वक़्त चलता जाए
उस व्योम के तले...